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कोई कली है न ग़ुंचा न गुल बरा-ए-सबा | शाही शायरी
koi kali hai na ghuncha na gul bara-e-saba

ग़ज़ल

कोई कली है न ग़ुंचा न गुल बरा-ए-सबा

ख़ातिर ग़ज़नवी

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कोई कली है न ग़ुंचा न गुल बरा-ए-सबा
चमन में काँटे हैं दामन बचा के आए सबा

न अब तिलिस्म-ए-बहाराँ न अब फुसून-ए-जमाल
वो लम्हे ख़्वाब हुए ख़्वाब भूल जाए सबा

कभी फ़ज़ाओं में ख़ुश्बू उड़ाए फिरती थी
मगर ये दिन कि बहारों में ख़ाक उड़ाए सबा

कली है मोहर-ब-लब फूल है गरेबाँ चाक
अजल की धूप है फिरती है साए साए सबा

न कुछ निशाँ की सदा है न आहटों के निशाँ
चमन में ढूँडते फिरते हैं नक़्श-ए-पा-ए-सबा

घुटन है ऐसी कि सरसर को भी तरसते हैं
किसे पुकारें कहाँ जाएँ ऐ ख़ुदा-ए-सबा

हरीम-ए-ग़ुंचा में ख़ुश्बू सिमट के बैठी है
हिजाब उठ्ठे जो सहन-ए-चमन में आए सबा

ख़बर नहीं मुझे किस सम्त ले के उड़ जाए
कई दिनों से मिरे सर में है हवा-ए-सबा

भटकती फिरती है सहरा-ए-दर्द में 'ख़ातिर'
बिछड़ गया हो कोई जैसे आश्ना-ए-सबा