कोई कली है न ग़ुंचा न गुल बरा-ए-सबा
चमन में काँटे हैं दामन बचा के आए सबा
न अब तिलिस्म-ए-बहाराँ न अब फुसून-ए-जमाल
वो लम्हे ख़्वाब हुए ख़्वाब भूल जाए सबा
कभी फ़ज़ाओं में ख़ुश्बू उड़ाए फिरती थी
मगर ये दिन कि बहारों में ख़ाक उड़ाए सबा
कली है मोहर-ब-लब फूल है गरेबाँ चाक
अजल की धूप है फिरती है साए साए सबा
न कुछ निशाँ की सदा है न आहटों के निशाँ
चमन में ढूँडते फिरते हैं नक़्श-ए-पा-ए-सबा
घुटन है ऐसी कि सरसर को भी तरसते हैं
किसे पुकारें कहाँ जाएँ ऐ ख़ुदा-ए-सबा
हरीम-ए-ग़ुंचा में ख़ुश्बू सिमट के बैठी है
हिजाब उठ्ठे जो सहन-ए-चमन में आए सबा
ख़बर नहीं मुझे किस सम्त ले के उड़ जाए
कई दिनों से मिरे सर में है हवा-ए-सबा
भटकती फिरती है सहरा-ए-दर्द में 'ख़ातिर'
बिछड़ गया हो कोई जैसे आश्ना-ए-सबा
ग़ज़ल
कोई कली है न ग़ुंचा न गुल बरा-ए-सबा
ख़ातिर ग़ज़नवी

