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कोई काफ़िर हमें समझे कि मुसलमाँ समझे | शाही शायरी
koi kafir hamein samjhe ki musalman samjhe

ग़ज़ल

कोई काफ़िर हमें समझे कि मुसलमाँ समझे

शारिब लखनवी

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कोई काफ़िर हमें समझे कि मुसलमाँ समझे
हम तो ऐ इश्क़ तुझे हासिल-ए-ईमाँ समझे

लाखों मसले हुए ग़ुंचे नहीं देखे हम ने
चंद हँसते हुए फूलों को गुलिस्ताँ समझे

ख़ुद-ब-ख़ुद वक़्त पे हो जाते हैं सामाँ क्यूँकर
कुछ जो समझे तो हमें बे-सर-ओ-सामाँ समझे

दावत-ए-आम है इक राह-ए-वफ़ा है मैं हूँ
वो मिरे साथ चला आए जो आसाँ समझे

बाग़बाँ की मिरे साहब-नज़री क्या कहना
फूल गुलशन पे हँसे आप बहाराँ समझे

हँस के मिल लेते हैं अहबाब यही काफ़ी है
किस को फ़ुर्सत कि किसी का ग़म-ए-पिन्हाँ समझे

ग़ुंचा-ओ-गुल के तबस्सुम की हक़ीक़त क्या है
पहले काँटों से गुज़र जाए तो इंसाँ समझे

वो ज़माने में ख़ुशी पा नहीं सकते 'शारिब'
आँसुओं को जो इलाज-ए-ग़म-ए-दौराँ समझे