कोई भी रस्ता बहुत सोच कर चुनूँगा मैं
और अब की बार अकेला सफ़र करूँगा मैं
उसे लिखूँगा कि वो राब्ता करे मुझ से
और इख़्तिताम पे नंबर नहीं लिखूँगा मैं
मैं और हिज्र के सदमे नहीं उठा सकता
वो अब जहाँ भी मिला हाथ जोड़ लूँगा मैं
जगह जगह न तअ'ल्लुक़ ख़राब कर मेरा
तिरे लिए तो किसी से भी लड़ पड़ूँगा मैं
वो एक मछली फँसाने की देर है मुझ को
फिर उस के बा'द मछेरा नहीं रहूँगा मैं
ग़ज़ल
कोई भी रस्ता बहुत सोच कर चुनूँगा मैं
ज़िया मज़कूर