EN اردو
कोई भी रस्ता बहुत सोच कर चुनूँगा मैं | शाही शायरी
koi bhi rasta bahut soch kar chununga main

ग़ज़ल

कोई भी रस्ता बहुत सोच कर चुनूँगा मैं

ज़िया मज़कूर

;

कोई भी रस्ता बहुत सोच कर चुनूँगा मैं
और अब की बार अकेला सफ़र करूँगा मैं

उसे लिखूँगा कि वो राब्ता करे मुझ से
और इख़्तिताम पे नंबर नहीं लिखूँगा मैं

मैं और हिज्र के सदमे नहीं उठा सकता
वो अब जहाँ भी मिला हाथ जोड़ लूँगा मैं

जगह जगह न तअ'ल्लुक़ ख़राब कर मेरा
तिरे लिए तो किसी से भी लड़ पड़ूँगा मैं

वो एक मछली फँसाने की देर है मुझ को
फिर उस के बा'द मछेरा नहीं रहूँगा मैं