कोहसार-ए-तग़ाफ़ुल को सदा काट रही है
हैराँ हूँ कि पत्थर को हवा काट रही है
पेशानी-ए-साहिल पे कोई नाम न उभरे
हर मौज समुंदर का लिखा काट रही है
अल्फ़ाज़ की धरती पे हूँ मफ़हूम-गज़ीदा
अब जिस्म पे काग़ज़ की क़बा काट रही है
हर रूह पस-ए-पर्दा-ए-तरतीब-ए-अनासिर
ना-कर्दा गुनाहों की सज़ा काट रही है
फ़नकार का ख़ूँ दामन-ए-तख़लीक़ पे गोया
तस्वीर मुसव्विर का गला काट रही है
महजूब हैं मग़रूर दरख़्तों की क़तारें
हर शाख़ को शमशीर-ए-अना काट रही है
ग़ज़ल
कोहसार-ए-तग़ाफ़ुल को सदा काट रही है
जमुना प्रसाद राही