EN اردو
किए क़रार मगर बे-क़रार ही रक्खा | शाही शायरी
kiye qarar magar be-qarar hi rakkha

ग़ज़ल

किए क़रार मगर बे-क़रार ही रक्खा

नादिर शाहजहाँ पुरी

;

किए क़रार मगर बे-क़रार ही रक्खा
हमें तो आप ने उम्मीद-वार ही रक्खा

पस-ए-फ़ना भी फ़लक ने ग़ुबार ही रक्खा
न रक्खी ख़ाक न संग-ए-मज़ार ही रक्खा

किसी के दर्द-ए-जुदाई ने हम को जीते जी
मिसाल-ए-अब्र-ए-सियह अश्क-बार ही रक्खा

मैं तेग़-ए-यार का क्यूँ कर न दम भरूँ जिस ने
मज़े ख़लिश के दिए दिल-फ़िगार ही रक्खा

मिला न चैन कभी हम को ख़ाक हो कर भी
फ़लक ने दोश-ए-सबा पर सवार ही रक्खा

ख़याल-ए-आरिज़-ए-रंगीं ने रोज़ आ आ कर
ख़िज़ाँ में भी हमें महव-ए-बहार ही रक्खा

किसी की चश्म-ए-मुकयफ़ ने किया कहीं 'नादिर'
तमाम उम्र हमें बादा-ख़्वार ही रक्खा