किए आरज़ू से पैमाँ जो मआल तक न पहुँचे
शब-ओ-रोज़-ए-आश्नाई मह ओ साल तक न पहुँचे
वो नज़र बहम न पहुँची कि मुहीत-ए-हुस्न करते
तिरी दीद के वसीले ख़द-ओ-ख़ाल तक न पहुँचे
वही चश्मा-ए-बक़ा था जिसे सब सराब समझे
वही ख़्वाब मो'तबर थे जो ख़याल तक न पहुँचे
तिरा लुत्फ़ वजह-ए-तस्कीं न क़रार शरह-ए-ग़म से
कि हैं दिल में वो गिले भी जो मलाल तक न पहुँचे
कोई यार जाँ से गुज़रा कोई होश से न गुज़रा
ये नदीम-ए-यक-दो-साग़र मिरे हाल तक न पहुँचे
चलो 'फ़ैज़' दिल जलाएँ करें फिर से अर्ज़-ए-जानाँ
वो सुख़न जो लब तक आए पे सवाल तक न पहुँचे
ग़ज़ल
किए आरज़ू से पैमाँ जो मआल तक न पहुँचे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़