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किया मैं ने रो कर फ़िशार-ए-गरेबाँ | शाही शायरी
kiya maine ro kar fishaar-e-gareban

ग़ज़ल

किया मैं ने रो कर फ़िशार-ए-गरेबाँ

मीर तक़ी मीर

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किया मैं ने रो कर फ़िशार-ए-गरेबाँ
रग-ए-अब्र था तार-तार-ए-गरेबाँ

कहीं दस्त-ए-चालाक नाख़ुन न लागे
कि सीना है क़ुर्ब-ओ-जवार-ए-गरेबाँ

निशाँ अश्क-ए-ख़ूनीं के उड़ते चले हैं
ख़िज़ाँ हो चली है बहार-ए-गरेबाँ

जुनूँ तेरी मिन्नत है मुझ पर कि तू ने
न रक्खा मिरे सर पे बार-ए-गरेबाँ

ज़ियारत करूँ दिल से ख़स्ता-जिगर की
कहाँ होगी यारब मज़ार-ए-गरेबाँ

कहीं जाए ये दौर-ए-दामन भी जल्दी
कि आख़िर हुआ रोज़गार-ए-गरेबाँ

फिरूँ 'मीर' उर्यां न दामन का ग़म हो
न बाक़ी रहे ख़ार-ख़ार-ए-गरेबाँ