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किया जो ए'तिबार उन पर मरीज़-ए-शाम-ए-हिज्राँ ने | शाही शायरी
kiya jo etibar un par mariz-e-sham-e-hijran ne

ग़ज़ल

किया जो ए'तिबार उन पर मरीज़-ए-शाम-ए-हिज्राँ ने

शौक़ बहराइची

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किया जो ए'तिबार उन पर मरीज़-ए-शाम-ए-हिज्राँ ने
ठण्डाई में धतूरा दे दिया ईसा-ए-दौराँ ने

फिराया दर-ब-दर उन को जहाँबानी के अरमाँ ने
नचाया ख़ूब ये बंदर जुनून-ए-फ़ित्ना-सामाँ ने

फ़ुजूर-ओ-फ़िस्क़ की तारीकियों में जब कोई भटका
दिखाई दूर से ही उस को लाईट उस के ईमाँ ने

सकूँ मिलता है उन को और न हम को चैन रातों को
परेशाँ कर रखा है आप के हाल-ए-परेशाँ ने

न है ये काम वहशत का न हरकत दस्त-ए-वहशत की
गला घोंटा है दीवाने का ख़ुद उस के गरेबाँ ने

फिरा कर दर-ब-दर चुनवाए तिनके रात दिन उन से
बनाया बेवक़ूफ़ अच्छा जुनून-ए-फ़ित्ना-सामाँ ने

दयार-ए-दोस्त में उश्शाक़ बेचारे जहाँ बैठे
पकड़ कर कान उठाया ख़ाक-रूब-ए-कू-ए-जानाँ ने

गुलों में रंग-ओ-बू है और न ग़ुंचों में तबस्सुम है
बहारें गुलसिताँ की बेच लीं अहल-ए-गुलिस्ताँ ने

जनाब-ए-नासेह-ए-मुशफ़िक़ नसीहत जब लगे करने
दिखाई चोंच हँस हँस कर उन्हें चाक-ए-गरेबाँ ने