किया ग़म ने सरायत बे-निहायत
करूँ किस सीं शिकायत बे-निहायत
हमारे क़त्ल पर मुफ़्ती ने ग़म के
निकाला है रिवायत बे-निहायत
तू अपने ग़म्ज़ा-ए-ख़ूनीं की ज़ालिम
अबस मत कर हिमायत बे-निहायत
तिरे रुख़ पर हुजूम-ए-ख़ाल-ओ-ख़त नईं
कि हैं मुसहफ़ में आयत बे-निहायत
किया है इश्क़ के हादी ने मुझ कूँ
मोहब्बत की हिदायत बे-निहायत
शकर-लब ने निगाह-ए-दिलबरी सीं
किया मुझ पर इनायत बे-निहायत
'सिराज' अब दास्तान-ए-शौक़ बस कर
कि बेजा है हिकायत बे-निहायत
ग़ज़ल
किया ग़म ने सरायत बे-निहायत
सिराज औरंगाबादी