EN اردو
किया ग़म ने सरायत बे-निहायत | शाही शायरी
kiya gham ne sarayat be-nihayat

ग़ज़ल

किया ग़म ने सरायत बे-निहायत

सिराज औरंगाबादी

;

किया ग़म ने सरायत बे-निहायत
करूँ किस सीं शिकायत बे-निहायत

हमारे क़त्ल पर मुफ़्ती ने ग़म के
निकाला है रिवायत बे-निहायत

तू अपने ग़म्ज़ा-ए-ख़ूनीं की ज़ालिम
अबस मत कर हिमायत बे-निहायत

तिरे रुख़ पर हुजूम-ए-ख़ाल-ओ-ख़त नईं
कि हैं मुसहफ़ में आयत बे-निहायत

किया है इश्क़ के हादी ने मुझ कूँ
मोहब्बत की हिदायत बे-निहायत

शकर-लब ने निगाह-ए-दिलबरी सीं
किया मुझ पर इनायत बे-निहायत

'सिराज' अब दास्तान-ए-शौक़ बस कर
कि बेजा है हिकायत बे-निहायत