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कितनी सदियों से लम्हों का लोबान जलता रहा | शाही शायरी
kitni sadiyon se lamhon ka loban jalta raha

ग़ज़ल

कितनी सदियों से लम्हों का लोबान जलता रहा

रउफ़ ख़लिश

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कितनी सदियों से लम्हों का लोबान जलता रहा
उम्र का सिलसिला साँस बन कर पिघलता रहा

नापता रह गया मौज से मौज का फ़ासला
वक़्त का तेज़ दरिया समुंदर में ढलता रहा

बे-निशाँ मंज़िलें किस सफ़र की कहानी लिखूँ
थक गई सोच हर मोड़ पर ज़ेहन जलता रहा

अजनबी रास्तों की तरफ़ यूँ न बढ़ते क़दम
गर्द बन कर कई मेरे हम-राह चलता रहा

रुत बदलते ही दिल में नई टीस पैदा हुई
ज़हर-आलूद मौसम में इक दर्द पलता रहा

ज्ञान की आँच ने कर दिया मस्ख़ मेरा वजूद
या मैं बरगद के साए में ख़ुद को बदलता रहा

दाएरे से निकल कर भी मैं दाएरे में था क़ैद
फूल ज़ख़्मों के चुनता रहा हाथ मलता रहा