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कितनी सदियाँ ना-रसी की इंतिहा में खो गईं | शाही शायरी
kitni sadiyan na-rasi ki intiha mein kho gain

ग़ज़ल

कितनी सदियाँ ना-रसी की इंतिहा में खो गईं

गुलज़ार बुख़ारी

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कितनी सदियाँ ना-रसी की इंतिहा में खो गईं
बे-जहत नस्लों की आवाज़ें ख़ला में खो गईं

रंग-ओ-बू का शौक़ आशोब-ए-हवा में ले गया
तितलियाँ घर से निकल कर इब्तिला में खो गईं

कौन पस-ए-मंज़र में उजड़े पैकरों को देखता
शहर की नज़रें लिबास-ए-ख़ुशनुमा में खो गईं

मुंतज़िर चौखट पे ताबीरों के शहज़ादे रहे
ख़्वाब की शहज़ादियाँ क़स्र-ए-दुआ में खो गईं

साँप ने उन के नशेमन में बसेरा कर लिया
पेड़ से चिड़ियों की महकारें फ़ज़ा में खो गईं

कोई क्या बाब-ए-अमाँ आफ़त-ज़दों पर खोलता
दस्तकें गुलज़ार तूफ़ाँ की सदा में खो गईं