कितनी देर और है ये बज़्म-ए-तरब-नाक न कह
रास आती है किसे गर्दिश-ए-अफ़्लाक न कह
क्यूँ ठहरता नहीं गुलज़ार में कोई मौसम
क्या कशिश रखती है ख़ुशबू-ए-तह-ए-ख़ाक न कह
देख तो रंग तमन्नाओं की बेताबी के
कल फ़ना है मगर ऐ साहब-ए-इदराक न कह
दर्द की आँच अबद तक है किसी रूप में हो
आज के फूल को आइंदा के ख़ाशाक न कह
लफ़्ज़ की ज़र्ब तो है साइक़ा-ओ-संग से सख़्त
दिल बहुत नर्म हैं ना-गुफ़्ता-ओ-बे-बाक न कह
ग़म-गुसारों को भी है अपने ही आलाम से काम
दिल पे जो बीती है ऐ दीदा-ए-नमनाक न कह
शौक़ ही ज़ीस्त भी है ज़ीस्त की आगाही भी
इस मसीहा-नफ़स-आज़ार को सफ़्फ़ाक न कह
दिल-ए-फ़रहाद जुनूँ-फ़हम को नादाँ न समझ
चश्म-ए-परवेज़-ए-तुनुक-होश को चालाक न कह
ख़ुद-नुमाई थी कि था महबस-ए-पिंदार का ख़ौफ़
क़ैस के जैब-ओ-गरेबाँ रहे क्यूँ चाक न कह
बुझ न जाएँ कहीं दिल अहल-ए-तमन्ना के 'ज़िया'
कैसे शो'लों से है ये जश्न-ए-तरब-नाक न कह

ग़ज़ल
कितनी देर और है ये बज़्म-ए-तरब-नाक न कह
ज़िया जालंधरी