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कितनी देर और है ये बज़्म-ए-तरब-नाक न कह | शाही शायरी
kitni der aur hai ye bazm-e-tarab-nak na kah

ग़ज़ल

कितनी देर और है ये बज़्म-ए-तरब-नाक न कह

ज़िया जालंधरी

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कितनी देर और है ये बज़्म-ए-तरब-नाक न कह
रास आती है किसे गर्दिश-ए-अफ़्लाक न कह

क्यूँ ठहरता नहीं गुलज़ार में कोई मौसम
क्या कशिश रखती है ख़ुशबू-ए-तह-ए-ख़ाक न कह

देख तो रंग तमन्नाओं की बेताबी के
कल फ़ना है मगर ऐ साहब-ए-इदराक न कह

दर्द की आँच अबद तक है किसी रूप में हो
आज के फूल को आइंदा के ख़ाशाक न कह

लफ़्ज़ की ज़र्ब तो है साइक़ा-ओ-संग से सख़्त
दिल बहुत नर्म हैं ना-गुफ़्ता-ओ-बे-बाक न कह

ग़म-गुसारों को भी है अपने ही आलाम से काम
दिल पे जो बीती है ऐ दीदा-ए-नमनाक न कह

शौक़ ही ज़ीस्त भी है ज़ीस्त की आगाही भी
इस मसीहा-नफ़स-आज़ार को सफ़्फ़ाक न कह

दिल-ए-फ़रहाद जुनूँ-फ़हम को नादाँ न समझ
चश्म-ए-परवेज़-ए-तुनुक-होश को चालाक न कह

ख़ुद-नुमाई थी कि था महबस-ए-पिंदार का ख़ौफ़
क़ैस के जैब-ओ-गरेबाँ रहे क्यूँ चाक न कह

बुझ न जाएँ कहीं दिल अहल-ए-तमन्ना के 'ज़िया'
कैसे शो'लों से है ये जश्न-ए-तरब-नाक न कह