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कितनी बे-नूर थी दिन भर नज़र-ए-परवाना | शाही शायरी
kitni be-nur thi din bhar nazar-e-parwana

ग़ज़ल

कितनी बे-नूर थी दिन भर नज़र-ए-परवाना

शहज़ाद अहमद

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कितनी बे-नूर थी दिन भर नज़र-ए-परवाना
रात आई तो हुई है सहर-ए-परवाना

शम्अ' जलते ही यहाँ हश्र का मंज़र होगा
फिर कोई पा न सकेगा ख़बर-ए-परवाना

बुझ गई शम्अ' कटी रात गई सब महफ़िल
अब अकेले ही कटेगा सफ़र-ए-परवाना

रात भर बज़्म में हंगामा ही हंगामा था
सिर्फ़ ख़ामोशी है अब नौहा-गर-ए-परवाना

सारी मख़्लूक़ तमाशे के लिए आई थी
कौन था सीखने वाला हुनर-ए-परवाना

आसमाँ सुर्ख़ है सूरज भी अभी डूबा है
अभी रौशन न करो रहगुज़र-ए-परवाना

न सही जिस्म मगर ख़ाक तो उड़ती फिरती
काश जलते न कभी बाल-ओ-पर-ए-परवाना

शम्अ' क्या चीज़ है जलती तो कहाँ तक जलती
अभी ज़िंदा है दिल-ए-बे-ख़तर-ए-परवाना

हाए वो हुस्न कि जिस का कोई मुश्ताक़ नहीं
हाए वो शम्अ' कि है बे-ख़बर-ए-परवाना

जिस तरह गुज़रेगी ये रात गुज़र जाएगी
मुद्दतों याद रहेगा असर-ए-परवाना

एक ही जस्त में तय हो गई मंज़िल 'शहज़ाद'
कितने आराम से गुज़रा सफ़र-ए-परवाना