EN اردو
कितने इम्काँ थे जो ख़्वाबों के सहारे देखे | शाही शायरी
kitne imkan the jo KHwabon ke sahaare dekhe

ग़ज़ल

कितने इम्काँ थे जो ख़्वाबों के सहारे देखे

ज़िया जालंधरी

;

कितने इम्काँ थे जो ख़्वाबों के सहारे देखे
मावरा थे जो नज़र से वो नज़ारे देखे

पर्दे उठते गए आँखों से तो रफ़्ता रफ़्ता
बर्ग-ए-गुल बर्फ़ में पत्थर में शरारे देखे

दिल पे उस वक़्त खुला हौसला-ए-ग़म का जमाल
अपने हर रंग में जब रूप तुम्हारे देखे

आसरे जाते रहे आस अभी बाक़ी है
पौ भी फूटेगी जहाँ डूबते तारे देखे

दिल को ख़ूँ करने की हसरत हो उसे भी शायद
साहब-ए-सादा अगर रंग हमारे देखे

ख़ूब-ओ-ना-ख़ूब में क्या फ़र्क़ करें हम कि यहाँ
जब हवा पलटी तो मुड़ते हुए धारे देखे

मुझे इस बज़्म में कहना तो बहुत कुछ था 'ज़िया'
बुझ गए लफ़्ज़ जब आँखों के इशारे देखे