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कितने ही तीर ख़म-ए-दस्त-ओ-कमाँ में होंगे | शाही शायरी
kitne hi tir KHam-e-dast-o-kaman mein honge

ग़ज़ल

कितने ही तीर ख़म-ए-दस्त-ओ-कमाँ में होंगे

तौसीफ़ तबस्सुम

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कितने ही तीर ख़म-ए-दस्त-ओ-कमाँ में होंगे
जिन के सोफ़ार अभी से मिरी जाँ में होंगे

दिल है अब ख़ाना-ए-आसेब-ज़दा की सूरत
ज़ख़्म रौज़न इसी तारीक मकाँ में होंगे

एक हम ही नहीं सर में लिए सौदा-ए-वफ़ा
और भी कितने मोहब्बत के गुमाँ में होंगे

सिर्फ़ तेरे लब-ओ-रुख़ की नहीं तस्वीर-ए-चमन
मेरे भी ग़म के कई रंग ख़िज़ाँ में होंगे

लड़खड़ाता हुआ आया है मिज़ा तक आँसू
रास्ते कैसे दिल-ए-दर्द-निशाँ में होंगे

बर-महल है तह-ए-अश्जार हवा का नौहा
कल के ग़ुंचे भी इसी दश्त-ए-ज़ियाँ में होंगे

है ख़द-ओ-ख़ाल का अम्बार यहाँ हर चेहरा
हम वो होंगे जो न ख़ुद अपने गुमाँ में होंगे