किसी की याद को हम ज़ीस्त का हासिल समझते हैं
उसी को राहत-ए-जाँ और सुकून-ए-दिल समझते हैं
सहारा है कहाँ यारब तिरे कश्ती-शिकस्तों का
निकल आती है मौज आख़िर जिसे साहिल समझते हैं
दिल-ए-ग़म-दीदा रोता है तिरी सहरा-नवर्दी पर
मगर ऐ क़ैस हम लैला को भी महमिल समझते हैं
ये है दौर-ए-हक़ाएक़ सेहर-ओ-अफ़्सूँ हो गए बातिल
मगर कम हैं जो सेहर-ए-हुस्न को बातिल समझते हैं
कहाँ ज़र्रा कहाँ ख़ुर्शीद ख़ुश-फ़हमी है ये अपनी
कि ख़ुद को जल्वा-गाह-ए-दोस्त के क़ाबिल समझते हैं
अदम है इक नफ़स का फ़ासला हस्ती से लेकिन हम
वो ग़ाफ़िल हैं कि उस को दूर की मंज़िल समझते हैं
कभी 'महरूम' हम भी ज़िंदगी पर जान देते थे
मगर अब मौत से उस को सिवा मुश्किल समझते हैं

ग़ज़ल
किसी की याद को हम ज़ीस्त का हासिल समझते हैं
तिलोकचंद महरूम