किसी की बे-रुख़ी का ग़म नहीं है
कि इतना रब्त भी अब कम नहीं है
न होश्यारी न ग़फ़लत और न मस्ती
हमारा अब कोई आलम नहीं है
रग-ए-जाँ से भी वो नज़दीक-तर हैं
मगर ये फ़ासला भी कम नहीं है
यहाँ क्या ज़िक्र शर्म ओ आबरू का
ये दौर-ए-अज़्मत-ए-मरयम नहीं है
फ़ुग़ाँ इक मश्ग़ला है आशिक़ों का
ये आदत बर-बिना-ए-ग़म नहीं है
फ़रिश्तों की ये शान-ए-बे-गुनाही
जवाब-ए-लग़्ज़िश-ए-आदम नहीं है
ग़ज़ल
किसी की बे-रुख़ी का ग़म नहीं है
माहिर-उल क़ादरी

