किसी के घर न माह ओ साल के मौसम में रहते हैं
कि हम हिज्र-ओ-विसाल-ए-यार के आलम में रहते हैं
वही गुल-गूं क़बा-ए-यार है नज़्ज़ारा-ए-हैरत
उसी ना-मेहरबाँ के गेसू-ए-पुर-ख़म में रहते हैं
वही प्यासी ज़मीं है हल्क़ा-ए-ज़ंजीर की सूरत
वही इक आसमाँ जिस के तले शबनम में रहते हैं
हमें ये रंग-ओ-बू की बात अब अच्छी नहीं लगती
बुरा क्या है जो हम अपनी ही चश्म-ए-नम में रहते हैं
गुज़र ही जाएगी उम्र-ए-रवाँ आहिस्ता आहिस्ता
अगरचे इल्म है हम इक दम-ए-बे-दम में रहते हैं
ग़ज़ल
किसी के घर न माह ओ साल के मौसम में रहते हैं
महताब हैदर नक़वी

