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किसी जानिब से भी परचम न लहू का निकला | शाही शायरी
kisi jaanib se bhi parcham na lahu ka nikla

ग़ज़ल

किसी जानिब से भी परचम न लहू का निकला

अहमद फ़राज़

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किसी जानिब से भी परचम न लहू का निकला
अब के मौसम में भी आलम वही हू का निकला

दस्त-ए-क़ातिल से कुछ उम्मीद-ए-शफ़ा थी लेकिन
नोक-ए-ख़ंजर से भी काँटा न गुलू का निकला

इश्क़ इल्ज़ाम लगाता था हवस पर क्या क्या
ये मुनाफ़िक़ भी तिरे वस्ल का भूका निकला

जी नहीं चाहता मय-ख़ाने को जाएँ जब से
शैख़ भी बज़्म-नशीं अहल-ए-सुबू का निकला

दिल को हम छोड़ के दुनिया की तरफ़ आए थे
ये शबिस्ताँ भी इसी ग़ालिया-मू का निकला

हम अबस सोज़न-ओ-रिश्ता लिए गलियों में फिरे
किसी दिल में न कोई काम रफ़ू का निकला

यार-ए-बे-फ़ैज़ से क्यूँ हम को तवक़्क़ो' थी 'फ़राज़'
जो न अपना न हमारा न अदू का निकला