किसी एहसास में पहली सी अब शिद्दत नहीं होती
कि अब तो दिल के सन्नाटे से भी वहशत नहीं होती
ज़माने-भर के ग़म अपना लिए हैं ख़ुद-फ़रेबी में
ख़ुद अपने ग़म से मिलने की हमें फ़ुर्सत नहीं होती
गुज़र जाती है सारी ज़िंदगी जिन के तआ'क़ुब में
बगूले हैं किसी भी ख़्वाब की सूरत नहीं होती
क़सम खाई है हम ने बारहा ख़ामोश रहने की
मगर घुट-घुट के रहने की अभी आदत नहीं होती
उसे मैं आगही का फ़ैज़ समझूँ या सज़ा समझूँ
हमें दुनिया की नैरंगी पे अब हैरत नहीं होती
जहाँ पर मक्र-ओ-फ़न आदाब-ए-महफ़िल बन के छाया हो
हमें ऐसी किसी महफ़िल से कुछ निस्बत नहीं होती
हज़ारों अन-कही बातें जिन्हें लिखने को जी चाहे
कभी हिम्मत नहीं होती कभी फ़ुर्सत नहीं होती

ग़ज़ल
किसी एहसास में पहली सी अब शिद्दत नहीं होती
अज़रा नक़वी