किसे ख़बर थी कि ख़ुद को वो यूँ छुपाएगा
और अपने नक़्श को लहरों पे छोड़ जाएगा
ख़मोश रहने की आदत भी मार देती है
तुम्हें ये ज़हर तो अंदर से चाट जाएगा
कुछ और देर ठहर जाओ ख़्वाब-ज़ारों में
वो अक्स ही सही लेकिन नज़र तो आएगा
बचा सको तो बचा लो ये आसमाँ ये ज़मीं
ज़रा सी देर में ये अश्क फैल जाएगा
ये अपने ध्यान में रखना कि मैं न आया तो
तुलू-ए-सुब्ह की ख़ातिर किसे बुलाएगा
बहुत हुआ तो यही होगा ऐ मिरे 'ख़ुर्शीद'
वो शख़्स जा के कभी लौट कर न आएगा
ग़ज़ल
किसे ख़बर थी कि ख़ुद को वो यूँ छुपाएगा
आबिद ख़ुर्शीद