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किसे दिमाग़ कि उलझे तिलिस्म-ए-ज़ात के साथ | शाही शायरी
kise dimagh ki uljhe tilism-e-zat ke sath

ग़ज़ल

किसे दिमाग़ कि उलझे तिलिस्म-ए-ज़ात के साथ

अताउर्रहमान क़ाज़ी

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किसे दिमाग़ कि उलझे तिलिस्म-ए-ज़ात के साथ
उलझ रहा हूँ अभी तेरी काएनात के साथ

मैं दीद-बान अज़ल से जिधर भी देखता था
शिकस्ता जाम पड़ा है अजाइबात के साथ

निकल गया था मैं इक रोज़ ख़ाक-दाँ की तरफ़
गुज़र रही है शब ओ रोज़ हादसात के साथ

मैं डूब डूब गया बे-निशाँ भँवर में कहीं
ख़ला में रक़्स-कुनाँ घूमती प्रात के साथ

मुहीत-ए-आब में हर साँस डोलती नय्या
ग़म-ए-वजूद जुड़ा है ग़म-ए-हयात के साथ

वही हरम है वही बुत वही पुजारी हैं
वही दिलों का तअल्लुक़ है सोमनात के साथ

बिखर बिखर गया इक मौज-ए-राएगाँ की तरह
किसी की जीत का नश्शा किसी की मात के साथ

ख़िज़ाँ की शाल में लिपटे शजर पे परवाने
नुमू के गीत लिखे रंग-ए-मुम्किनात के साथ

क़दम क़दम पे उलझना वो बे-सबब दिल का
है अब तो रोज़ का मामूल पाँच सात के साथ

हज़ार तल्ख़ सही फिर भी ख़ुश-नवा है बहुत
किसी चराग़ का लहजा सियाह रात के साथ

सुना है मौसम-ए-बे-रंगी-ए-ज़माँ यकसर
बदल गया है तिरी चश्म-ए-इल्तिफ़ात के साथ

मैं अब भी माज़ी की गलियों में जा निकलता हूँ
पड़ी है टाट पे तख़्ती क़लम दवात के साथ

बहुत दिनों वो रहा है इसी खंडर में मुक़ीम
सो रख दिया है ये दिल भी नवादिरात के साथ

ये बस्तियों पे अजब वहशतों का मौसम है
नुमू-पज़ीर हुआ है तग़य्युरात के साथ

मैं कुंज-ए-ज़ात से निकला तो यूँ हुआ कि 'अता'
कुछ और फैल गया ग़म भी शश-जहात के साथ