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किसे देखते किसे पूछते कि हम आप कुश्ता-ए-हाल थे | शाही शायरी
kise dekhte kise puchhte ki hum aap kushta-e-haal the

ग़ज़ल

किसे देखते किसे पूछते कि हम आप कुश्ता-ए-हाल थे

महशर बदायुनी

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किसे देखते किसे पूछते कि हम आप कुश्ता-ए-हाल थे
सर-ए-लब कुछ और थे मसअले पस-ए-जाँ कुछ और सवाल थे

जो लहूलुहान किए गए सर-ए-रह जो मार दिए गए
वो शग़ाल तो न थे दश्त के मिरे शहर ही के ग़ज़ाल थे

उठा पर्दा रू-ए-गुमाँ से जब तो खुला अजब ही तिलिस्म-ए-शब
वो तमाम चेहरे भी ख़्वाब थे वो सब आइने भी ख़याल थे

बढ़े जितने राह में पेच-ओ-ख़म हुआ और जज़्ब-ए-सफ़र बहम
जो मलाल थे मिरे हम-क़दम कहीं थमने वाले मलाल थे

बड़ी सब्र-कश थीं मसाफ़तें कि क़दम क़दम थीं क़यामतें
मिरी हिम्मतें तो निहाल थीं मिरे हौसले तो बहाल थे