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किस राह गया लैला का महमिल नहीं मालूम | शाही शायरी
kis rah gaya laila ka mahmil nahin malum

ग़ज़ल

किस राह गया लैला का महमिल नहीं मालूम

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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किस राह गया लैला का महमिल नहीं मालूम
है बादिया रेग और हमें मंज़िल नहीं मालूम

मैं हश्र के दिन दावा ख़ूँ किस से करूँगा
वो कुश्ता हूँ जिस कुश्ता का क़ातिल नहीं मालूम

निकलें हैं मिरे दिल के तड़पने में अदाएँ
है किस की निगाहों का ये बिस्मिल नहीं मालूम

था रू-ए-दिल-ए-ख़स्ता तो शब मेरी तरफ़ को
कब हो गया मिज़्गाँ के मुक़ाबिल नहीं मालूम

वो बहर है दरिया-ए-सरिशक अपना कि जिस का
पहना ही नज़र आवे है साहिल नहीं मालूम

मर जाऊँ कि जीता रहूँ मैं हिज्र में तेरे
किस चीज़ का ख़्वाहाँ है मिरा दिल नहीं मालूम

आँखों से गुज़ारा है जो यूँ लख़्त जिगर का
आते हैं चले किस के ये घाएल नहीं मालूम

क्या जानिए क्या उस में तिरी आँखों ने देखा
क्यूँ हो गईं आईने की माइल नहीं मालूम

ऐ 'मुसहफ़ी' अफ़्सोस कि इस हस्ती पे हम को
तहसील-ए-वफ़ादारी का हासिल नहीं मालूम