किस क़यामत की घटा छाई है
दिल की हर चोट उभर आई है
दर्द बदनाम तमन्ना रुस्वा
इश्क़ रुस्वाई ही रुस्वाई है
उस ने फिर याद किया है शायद
दिल धड़कने की सदा आई है
ज़ुल्फ़ ओ रुख़्सार का मंज़र तौबा
शाम और सुब्ह की यकजाई है
हम से छुप छुप के सँवरने वाले
चश्म-ए-आईना तमाशाई है
दिल तमन्ना से है कितना बे-ज़ार
ठोकरें खा के समझ आई है
तुम से 'माहिर' को नहीं कोई गिला
उस ने क़िस्मत ही बुरी पाई है
ग़ज़ल
किस क़यामत की घटा छाई है
माहिर-उल क़ादरी

