किस क़दर वज़्न है ख़ताओं में
ज़िक्र रहता है पारसाओं में
वापसी पर उतर गया चेहरा
जा के बैठा था हम-नवाओं में
राज़ की बात है दुआ न करो
याद रखना हमें दुआओं में
ढूँड शायद मिले पयाम-ए-ज़मीर
बूढ़े बरगद की इन चट्टानों में
अपनी तारीफ़ करने बैठा था
बात उड़ा दी गई हवाओं में
चेहरे बदले हुए हैं 'शमर'-ओ-'यज़ीद'
अहद-ए-हाज़िर की कर्बलाओं में
सोचते हो 'वक़ार' क्या तुम भी
नाम आ जाए पारसाओं में
ग़ज़ल
किस क़दर वज़्न है ख़ताओं में
वक़ार वासिक़ी