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किस क़दर था गर्म नाला बुलबुल-ए-नाशाद का | शाही शायरी
kis qadar tha garm nala bulbul-e-nashad ka

ग़ज़ल

किस क़दर था गर्म नाला बुलबुल-ए-नाशाद का

जलील मानिकपूरी

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किस क़दर था गर्म नाला बुलबुल-ए-नाशाद का
आग फूलों में लगी घर जल गया सय्याद का

सहल समझा था सताना बुलबुल-ए-नाशाद का
चार नालों में कलेजा हिल गया सय्याद का

ज़ेर-ए-ख़ंजर मैं तड़पता हूँ फ़क़त इस वास्ते
ख़ून मेरा उड़ के दामन-गीर हो जल्लाद का

दर-पए-आज़ार पहले आसमाँ इतना न था
पा गया है कुछ इशारा उस सितम-ईजाद का

अब तो वो भी लोट है बुलबुल तिरी आवाज़ पर
बारकल्लाह ख़ूब फाँसा तू ने दिल सय्याद का

उस के सदक़े जाइए जिस ने तुझे पैदा किया
शक्ल दी हूर-ओ-परी की दिल दिया जल्लाद का

वस्ल में कैसा अदब ऐ जान गुस्ताख़ी मुआफ़
आज लेना है मुझे तुम से एवज़ बेदाद का

आप भी ख़ंजर-ब-कफ़ हैं मैं भी हूँ सीना-सिपर
रह न जाए आज कोई हौसला बेदाद का

मुझ को है ऐसा चमन दरकार जिस में ऐ 'जलील'
ख़ौफ़ गुलचीं का न हो खटका न हो सय्याद का