किस क़दर रूह पशेमाँ है तुम्हें क्या मा'लूम
कब कहाँ कौन परेशाँ है तुम्हें क्या मा'लूम
मेरे अफ़्कार पे एहसास का सहरा हावी
और तख़य्युल में गुलिस्ताँ है तुम्हें क्या मा'लूम
उन के माहौल पे रक़्साँ हैं बहारें नग़्मे
मेरा हर गीत ग़म-ए-जाँ है तुम्हें क्या मा'लूम
रात बेचैन है आँखों में सिमटने के लिए
तीरगी ज़ीस्त का उनवाँ है तुम्हें क्या मा'लूम
कल जो था संग-ए-गिराँ शहर-ए-वफ़ा में 'मंज़र'
आज वो ला'ल-ए-बदख़्शाँ है तुम्हें क्या मा'लूम

ग़ज़ल
किस क़दर रूह पशेमाँ है तुम्हें क्या मा'लूम
जावेद मंज़र