किस नाम-ए-मुबारक ने मज़ा मुँह को दिया है
क्यूँ लब पे मिरे ज़मज़मा-ए-सल्ल-ए-अला है
किस दर की गदाई मिरी क़िस्मत में है या रब
सर पर जो मिरे साया-फ़गन बाल-ए-हुमा है
सीने में मिरे दाग़-ए-ग़म-ए-इश्क़-ए-नबी है
इक गौहर-ए-नायाब मिरे हाथ लगा है
सरगर्म है दिल शाफ़ा-ए-महशर की तलब में
काफ़िर हूँ अगर कुछ भी ग़म-ए-रोज़-ए-जज़ा है
गुस्ताख़ तिरी मदह-सराई में है 'वहशत'
क्यूँकर न हो तेरे ही तो कूचे का गदा है
ग़ज़ल
किस नाम-ए-मुबारक ने मज़ा मुँह को दिया है
वहशत रज़ा अली कलकत्वी