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किस किस से न वो लिपट रहा था | शाही शायरी
kis kis se na wo lipaT raha tha

ग़ज़ल

किस किस से न वो लिपट रहा था

वज़ीर आग़ा

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किस किस से न वो लिपट रहा था
पागल था यूँही चिमट रहा था

मिरी रात गुज़र रही थी ऐसे
मैं जैसे वरक़ उलट रहा था

सागर में नहीं थी मौज इक भी
साहिल था कि फिर भी कट रहा था

मैं भी तो झपट रहा था ख़ुद पर
जब मेरा असासा बट रहा था

देखा तो नज़र थी उस की जल-थल
मशकीज़ा-ए-अब्र फट रहा था

क़िस्मत ही में रौशनी नहीं थी
बादल तो कभी का छट रहा था

नश्शा था चढ़ाओ पर सहर-ए-दम
पैमाना-ए-उम्र घट रहा था