EN اردو
किस की खोई हुई हँसी थी मैं | शाही शायरी
kis ki khoi hui hansi thi main

ग़ज़ल

किस की खोई हुई हँसी थी मैं

जानाँ मलिक

;

किस की खोई हुई हँसी थी मैं
किस के होंटों पे आ गई थी मैं

किन ज़मानों पे मुन्कशिफ़ हुई हूँ
किन ज़मानों की रौशनी थी मैं

मैं किसी शख़्स की उदासी थी
सर्द लहजे में बोलती थी मैं

दिन ढले लौटते परिंदों को
घर की खिड़की से देखती थी मैं

काश इक बार देख लेते तुम
रास्ते में पड़ी हुई थी मैं

अब जो अफ़्सुर्दगी की चादर हूँ
मौसम-ए-गुल की ओढ़नी थी मैं

ख़ुद को दरयाफ़्त करने निकली हूँ
या'नी ख़ुद से कहीं ख़फ़ी थी मैं

गुनगुनाता था शब के पिछले पहर
जाने किस दिल की रागनी थी मैं

फिर दिसम्बर था सर्द रातें थीं
शहर सोता था जागती थी मैं

उस ने जब हाथ हाथ पर रक्खा
सुर्ख़ फूलों से भर गई थी मैं

आज देखा था आइना मैं ने
और फिर देर तक हँसी थी मैं

जाने क्या बात याद आई मुझे
हँसते हँसते जो रो पड़ी थी मैं

मैं ने इक शाम पा लिया था उसे
उस से इक रात खो गई थी मैं

जानता कौन मुझ को मेरे सिवा
घर के अंदर भी अजनबी थी मैं

मेरी परतें नहीं खुलीं अब तक
देवताओं की शाइ'री थी मैं

ख़ुद से टकरा गई थी 'जानाँ' कहीं
अपने रस्ते में आ गई थी मैं