किस जा न बे-क़रारी से मैं ख़स्ता-तन गया
पर देखने का उस के कहीं ढब न बन गया
किस किस तरह की की ख़फ़गी दिल ने मुझ से आह
रूठा किसी का यार किसी से जो मन गया
यारो जहाँ में अब कहीं देखी वफ़ा की चाल
जाने दो ये न ज़िक्र करो वो चलन गया
सौसन ज़बाँ निकाले जो निकली तो ज़ेर-ए-ख़ाक
क्या जानिए कि कौन ये तिश्ना-दहन गया
ऐ इश्क़ सच तो ये है कि शीरीं ने कुछ न की
हसरत का कोह दिल पे लिए कोहकन गया
बस नासेहा ये तीर-ए-मलामत कहाँ तलक
बातों से तेरी आह कलेजा तो छन गया
कल उस सनम के कूचे से निकला जो शैख़-ए-वक़्त
कहते थे सब इधर से अजब बरहमन गया
पैदा ये हिज्र-ए-यार में वहशत हुई कि आह
इस दिल का वस्ल में भी न दीवाना-पन गया
हैराँ है तुझ को देख के 'जुरअत' मिरी तो अक़्ल
दो चार दिन में क्या ये तिरा हाल बन गया
ग़ज़ल
किस जा न बे-क़रारी से मैं ख़स्ता-तन गया
जुरअत क़लंदर बख़्श