EN اردو
किनाया और ढब का इस मिरी मज्लिस में कम कीजे | शाही शायरी
kinaya aur Dhab ka is meri majlis mein kam kije

ग़ज़ल

किनाया और ढब का इस मिरी मज्लिस में कम कीजे

इंशा अल्लाह ख़ान

;

किनाया और ढब का इस मिरी मज्लिस में कम कीजे
अजी सब ताड़ जावेंगे न ऐसा तो सितम कीजे

तुम्हारे वास्ते सहरा-नशीं हूँ एक मुद्दत से
बसान-ए-आहू-ए-वहशी न मुझ से आप रम कीजे

महाराजों के राजा ऐ जुनूँ ङंङवत है तुम को
यही अब दिल में आता है कोई पोथी रक़म कीजे

गले में डाल कर ज़ुन्नार क़श्क़ा खींच माथे पर
बरहमन बनिए और तौफ़-ए-दर-ए-बैतुस्सनम कीजे

कहीं दिल की लगावट को जो यूँ सूझे कि तक जा कर
क़दीमी यार से अपने भी ख़ल्ता कोई दम कीजिए

तू उँगली काट दाँतों में फुला नथुने रुहांदी हो
लगा कहने बस अब मेरे बुढ़ापे पर करम कीजे

फड़कता आज भी हम को न परसों की तरह रखिए
ख़ुदा के वास्ते कुछ याद वो अगली क़सम कीजे

मलंग आपस में कहते थे कि ज़ाहिद कुछ जो बोले तो
इशारा उस को झट सू-ए-नर-अंगुश्त-ए-शिकम कीजे

कभी ख़त भी न लिख पहुँचा पढ़ाया आप को किस ने
कि अलक़त दोस्ती 'इंशा' से ऐसी यक-क़लम कीजिए