किनारों से जुदा होता नहीं तुग़्यानियों का दुख
नई मौजों में रहता है पुराने पानियों का दुख
कहीं मुद्दत हुई उस को गँवाया था मगर अब तक
मिरी आँखों में है उन बे-सर-ओ-सामानियों का दुख
तो क्या तू भी मिरी उजड़ी हुई बस्ती से गुज़रा है
तो क्या तू ने भी देखा है मिरी वीरानियों का दुख
शिकस्त-ए-ग़म के लम्हों में जो ग़म-आलूद हो जाएँ
ज़मीं हाथों पे ले लेती है उन पेशानियों का दुख
मियान-ए-अक्स-ओ-आईना अभी कुछ गर्द बाक़ी है
अभी पहचान में आया नहीं हैरानियों का दुख
मैं पहले ढूँढता हूँ इक ज़रा आसानियाँ और फिर
बड़ी मुश्किल में रखता है मुझे आसानियों का दुख
ग़ज़ल
किनारों से जुदा होता नहीं तुग़्यानियों का दुख
अज़हर नक़वी