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की मय से हज़ार बार तौबा | शाही शायरी
ki mai se hazar bar tauba

ग़ज़ल

की मय से हज़ार बार तौबा

सरदार गेंडा सिंह मशरिक़ी

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की मय से हज़ार बार तौबा
रहती नहीं बरक़रार तौबा

तुम मय से करो हज़ार बार तौबा
तुम से ये निभे क़रार तौबा

बंदों को गुनह तबाह करते
होती न जो ग़म-गुसार तौबा

होती है बहार में मुअ'त्तल
करते हैं जो मय-गुसार तौबा

मक़्बूल हो क्यूँ न गर करें हम
बा-दीदा-ए-अश्क-बार तौबा

होगी कभी 'मशरिक़ी' न क़ुबूल
पीरी में करो हज़ार तौबा