ख़्वार-ओ-रुसवा न सर-ए-कूचा-ओ-बाज़ार मिले
है यही इश्क़ का एज़ाज़ सर-ए-दार मिले
ज़िंदगी से ये रहा अपनी मुलाक़ात का हाल
किसी बेज़ार से जैसे कोई बेज़ार मिले
हम से पहले भी ये अफ़्साना बयाँ होता था
कितने ग़म फिर भी हमें तिश्ना-ए-इज़हार मिले
ज़िंदगी ने कोई आईना दिखाया जब भी
अपने चेहरे पे हमें मौत के आसार मिले
फ़िक्र-ए-ता'बीर में नींद उड़ गई दीवानों की
ख़्वाब अपने ही उन आँखों में जो बेदार मिले
मुस्कुराते हुए चेहरों पे न जाओ 'मख़मूर'
शायद इन में भी कोई तुम सा दिल-अफ़गार मिले

ग़ज़ल
ख़्वार-ओ-रुसवा न सर-ए-कूचा-ओ-बाज़ार मिले
मख़मूर सईदी