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ख़्वाहिश-ए-वस्ल को क़लील न कर | शाही शायरी
KHwahish-e-wasl ko qalil na kar

ग़ज़ल

ख़्वाहिश-ए-वस्ल को क़लील न कर

मुश्ताक़ अहमद नूरी

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ख़्वाहिश-ए-वस्ल को क़लील न कर
शब-ए-हिज्राँ को अब तवील न कर

मैं ने तुझ को रखा सर-आँखों पर
ज़िंदगी तू मुझे ज़लील न कर

जिस का जी चाहे पी ले जी भर के
इतनी सस्ती कभी सबील न कर

अपने नाम-ओ-निशाँ मिटाता चल
नक़्श-ए-पा को तू संग-ए-मील न कर

नींद की वादियों में रात गुज़ार
अरसा-ए-ख़्वाब को क़लील न कर

तेरा मुहताज उम्र भर मैं रहूँ
ऐ ख़ुदा मुझ को ख़ुद-कफ़ील न कर

रात की आँख बंद होने लगी
दास्ताँ को बहुत तवील न कर

मैं ने तो अश्क पी लिया 'नूरी'
अपनी आँखों को तू भी झील न कर