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ख़्वाहाँ तिरे हर रंग में ऐ यार हमीं थे | शाही शायरी
KHwahan tere har rang mein ai yar hamin the

ग़ज़ल

ख़्वाहाँ तिरे हर रंग में ऐ यार हमीं थे

हैदर अली आतिश

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ख़्वाहाँ तिरे हर रंग में ऐ यार हमीं थे
यूसुफ़ था अगर तू तो ख़रीदार हमीं थे

बे-दाद की महफ़िल में सज़ा-वार हमीं थे
तक़्सीर किसी की हो गुनहगार हमीं थे

वादा था हमीं से लब-ए-बाम आने का होना
साये की तरह से पस-ए-दीवार हमीं थे

कंघी तिरी ज़ुल्फ़ों की हमीं पर थी मुक़र्रर
आईना दिखाते तुझे हर बार हमीं थे

नेमत थी तिरे हुस्न की हिस्से में हमारे
तू कान-ए-मलाहत था ख़रीदार हमीं थे

सौदा-ज़दा ज़ुल्फ़ों का न था अपने सिवा एक
आज़ाद दो-आलम था गिरफ़्तार हमीं थे

तू और हम ऐ दोस्त थे यक-जान दो क़ालिब
था ग़ैर सिवा अपने जो था यार हमीं थे

बीमार-ए-मोहब्बत था सिवा अपने न कोई
इक मुस्तहिक़-ए-शर्बत-ए-दीदार हमीं थे

बे अपने बहलती थी तबीअत न किसी से
दिल-सोज़ हमीं थे तिरे ग़म-ख़्वार हमीं थे

इक जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ से ग़श आता था हमीं को
दो नर्गिस-ए-बीमार के बीमार हमीं थे

जब चाहते थे लेते थे आग़ोश में तुम को
मजबूर से रह जाते थे मुख़्तार हमीं थे

हम सा न कोई चाहने वाला था तुम्हारा
मरते थे हमीं जान से बेज़ार हमीं थे

बद-नाम मोहब्बत ने तिरी हम को किया था
रुस्वा-ए-सर-ए-कूचा-ओ-बाज़ार हमें थे

दिल ठोकरें खाता था न हर गाम किसी का
इक ख़ाक में मिलते दम-ए-रफ़्तार हमीं थे

भड़काने से 'आतिश' को जलाने लगे या तो
अल्ताफ़-ओ-इनायत के सज़ा-वार हमीं थे