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ख़्वाब पहले ले गया फिर रत-जगा भी ले गया | शाही शायरी
KHwab pahle le gaya phir rat-jaga bhi le gaya

ग़ज़ल

ख़्वाब पहले ले गया फिर रत-जगा भी ले गया

तस्लीम इलाही ज़ुल्फ़ी

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ख़्वाब पहले ले गया फिर रत-जगा भी ले गया
जाते जाते वो मिरे घर का दिया भी ले गया

धूप है अब और न बादल है न ख़ुशबू और न फूल
सारे मौसम ले गया आब-ओ-हवा भी ले गया

ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी तय हो मसाफ़त किस तरह
सम्त-ए-मंज़िल ले गया वो रास्ता भी ले गया

एक मुद्दत हो गई बैठा हूँ संग-ए-मील पर
रास्तों के साथ अपने नक़्श-ए-पा भी ले गया

हाथ पत्थर हो गए लब कपकपाते रह गए
वो दुआ भी ले गया दस्त-ए-दुआ भी ले गया

कैसे देखूँगा मैं 'ज़ुल्फ़ी' अपने चेहरे की किताब
वो गया तो आरज़ू का आइना भी ले गया