ख़्वाब पहले ले गया फिर रत-जगा भी ले गया
जाते जाते वो मिरे घर का दिया भी ले गया
धूप है अब और न बादल है न ख़ुशबू और न फूल
सारे मौसम ले गया आब-ओ-हवा भी ले गया
ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी तय हो मसाफ़त किस तरह
सम्त-ए-मंज़िल ले गया वो रास्ता भी ले गया
एक मुद्दत हो गई बैठा हूँ संग-ए-मील पर
रास्तों के साथ अपने नक़्श-ए-पा भी ले गया
हाथ पत्थर हो गए लब कपकपाते रह गए
वो दुआ भी ले गया दस्त-ए-दुआ भी ले गया
कैसे देखूँगा मैं 'ज़ुल्फ़ी' अपने चेहरे की किताब
वो गया तो आरज़ू का आइना भी ले गया
ग़ज़ल
ख़्वाब पहले ले गया फिर रत-जगा भी ले गया
तस्लीम इलाही ज़ुल्फ़ी