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ख़्वाब में कोई मुझ को आस दिलाने बैठा था | शाही शायरी
KHwab mein koi mujhko aas dilane baiTha tha

ग़ज़ल

ख़्वाब में कोई मुझ को आस दिलाने बैठा था

इरफ़ान सत्तार

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ख़्वाब में कोई मुझ को आस दिलाने बैठा था
जागा तो मैं ख़ुद अपने ही सिरहाने बैठा था

यूँही रुका था दम लेने को, तुम ने क्या समझा?
हार नहीं मानी थी बस सुस्ताने बैठा था

ख़ुद भी लहूलुहान हुआ दिल, मुझे भी ज़ख़्म दिए
मैं भी कैसे वहशी को समझाने बैठा था

लाख जतन करने पर भी कम हुआ न दिल का बोझ
कैसा भारी पत्थर मैं सरकाने बैठा था

तारे किरनों की रथ पर लाए थे उस की याद
चाँद भी ख़्वाबों का चंदन महकाने बैठा था

नए बरस की ख़ुशियों में मशग़ूल थे सब, और मैं
गए बरस की चोटों को सहलाने बैठा था

वो तो कल झंकार से परख लिया उस ज्ञानी ने
मैं तो पीतल के सिक्के चमकाने बैठा था

दुश्मन जितने आए उन के ख़ता हुए सब तीर
लेकिन अपनों का हर तीर निशाने बैठा था

क़िस्सों को सच मानने वाले, देख लिया अंजाम?
पागल झूट की ताक़त से टकराने बैठा था

मत पूछो कितनी शिद्दत से याद आई थी माँ
आज मैं जब चटनी से रोटी खाने बैठा था

अपना क़ुसूर समझ नहीं आया जितना ग़ौर किया
मैं तो सच्चे दिल से ही पछताने बैठा था

ऐन उसी दम ख़त्म हुई थी मोहलत जब 'इरफ़ान'
ख़ुद को तोड़ चुका था और बनाने बैठा था