ख़्वाब की सूरत कभी हम-रंग अफ़्साना मिले
चाँद जैसे लोग हम से माहताबाना मिले
दीदा-ओ-दिल में बसा ली उस के कूचे की हवा
उस की ज़ुल्फ़ों की महक से भी असीराना मिले
हम भी इक बुत की परस्तिश के लिए बेताब हैं
कौन जाने कब मोहब्बत का सनम-ख़ाना मिले
आरज़ू-मंद-ए-तमाशा हैं मिरी तन्हाइयाँ
कोई काशाना नहीं तो कोई वीराना मिले

ग़ज़ल
ख़्वाब की सूरत कभी हम-रंग अफ़्साना मिले
सहबा अख़्तर