ख़्वाब देखने वाली आँखें पत्थर होंगी तब सोचेंगे
सुंदर कोमल ध्यान तितलियाँ बे-पर होंगी तब सोचेंगे
रस बरसाने वाले बादल और तरफ़ क्यूँ उड़ जाते हैं
हरी-भरी शादाब खेतियाँ बंजर होंगी तब सोचेंगे
बस्ती की दीवार पे किस ने अन-होनी बातें लिख दी हैं
इस अनजाने डर की बातें घर घर होंगी तब सोचेंगे
माँगे के फूलों से कब तक रूप-सरूप का मान बढ़ेगा
अपने आँगन की महकारें बे-घर होंगी तब सोचेंगे
बीती रुत की सब पहचानें भूल गए तो फिर क्या होगा
गए दिनों की यादें जब बे-मंज़र होंगी तब सोचेंगे
आने वाले कल का स्वागत कैसे होगा कौन करेगा
जलते हुए सूरज की किरनें सर पर होंगी तब सोचेंगे
ग़ज़ल
ख़्वाब देखने वाली आँखें पत्थर होंगी तब सोचेंगे
इफ़्तिख़ार आरिफ़