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ख़ूबी का तेरी बस-कि इक आलम गवाह है | शाही शायरी
KHubi ka teri bas-ki ek aalam gawah hai

ग़ज़ल

ख़ूबी का तेरी बस-कि इक आलम गवाह है

मिर्ज़ा अली लुत्फ़

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ख़ूबी का तेरी बस-कि इक आलम गवाह है
अपनी बग़ैर देखे ही हालत तबाह है

आलम सुना जो नाज़ का है उस से अल-अमाँ
अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू से ख़ुदा की पनाह है

तेवरी के ढब हैं और निगह के हज़ार डोल
चितवन के लाख रंग ग़रज़ वाह वाह है

नाख़ुन ये दिल हिलाल है अबरू के रश्क से
मुखड़े का दाग़ रखता कलेजे पे माह है

ख़ूँ-रेज़ तेरी चश्म को बतलाते हैं वले
चितवन में साथ कहते हैं फिर उज़्र-ख़्वाह है

ख़ूबी का तेरे बालों की मज़कूर है जहाँ
सुम्बुल का नाम इस जगह इक रू-सियाह है

देता है तेरी क़ामत-ए-दिल-जू का जो पता
बे-साख़्ता वो खींचता इक दिल से आह है

गो 'लुत्फ'-ए-ख़ुफ़्ता-बख़्त के आओ न ख़्वाब में
लेकिन तिरे ख़याल को नित दिल में राह है