ख़ूब-रूयान-ए-जहाँ चाँद की तनवीरें हैं
पुतलियाँ आँखों की रौशन हों वो तस्वीरें हैं
शेर-गोयों को मज़ामीन की तौक़ीरें हैं
कहने को एक ज़मीं सैकड़ों जागीरें हैं
यार से होती है गुस्ताख़ जो होती हो सो हो
ज़ुल्फ़ें हाथों में हैं या पाँव में ज़ंजीरें हैं
कोई आदाब-ए-मोहब्बत को भला क्या जाए
ज़िल्लतें जितनी हैं आशिक़ की वो तौक़ीरें हैं
करूँ तौबा जो हो पैदा बुन-ए-हर-मू से ज़बाँ
जितने हैं मू-ए-बदन उतनी ही तक़्सीरें हैं
वो भवें मार उतारेंगे किसी दिन मुझ को
जिन के क़ब्ज़े में क़ज़ा है ये वो शमशीरें हैं
क़ौल-ए-हक़ पर हुए कब मुत्तफ़िक़ अहल-ए-दुनिया
एक क़ुरआन है जिस की कई तफ़्सीरें हैं
क्या यक़ीं आए मुझे हाल-ए-बहिश्त-ओ-दोज़ख़
मैं हूँ जिस ख़्वाब में सब उस की ये ताबीरें हैं
सात दोज़ख़ किए ख़ल्क़ उस ने करीमी उस की
एक हफ़्ते की हमारे लिए ताज़ीरें हैं
चार ईंटें हुईं किस के न महल्ल-ए-नख़वत
मक़बरे आज सलातीन की तामीरें हैं
एक ज़र्रे को जो क़िस्मत से न जुम्बिश हो न हो
ख़ाक उड़ाने को तो आँधी मिरी तदबीरें हैं
कोई ख़ुश-ख़्वान हो क़ासिद तो बहुत बेहतर है
मेरे नामे में तराने की भी तहरीरें हैं
हड्डियाँ जिस्म में जलती हैं पलीते की तरह
इश्क़ के इस्म-ए-जलाली की ये तासीरें हैं
दिल को हर-वक़्त जो रहती है बुतों की तस्बीह
अपने नालों को समझता हूँ की तक्बीरें हैं
'बहर' अर्ज़ंग-ए-जहाँ का न तमाशाई हो
जिन का साया है बला उस में वो तस्वीरें हैं
ग़ज़ल
ख़ूब-रूयान-ए-जहाँ चाँद की तनवीरें हैं
इमदाद अली बहर