ख़ूब-रू जो एक का महबूब नहीं
ऐसे हरजाई से मिलना ख़ूब नहीं
चोली नीची मत पहन ऐ जामा-ज़ेब
इस में छब तख़्ती का कुछ उस्लूब नहीं
मैं तो तालिब दिल से हूँगा दीन का
दौलत-ए-दुनिया मुझे मतलूब नहीं
सब्र कब तक हिज्र में तेरे करूँ
मैं तिरा आशिक़ हूँ कुइ अय्यूब नहीं
यार की 'ताबाँ' ज़नख़दाँ को न चाह
देख कहता हूँ कुएँ में डूब नहीं
ग़ज़ल
ख़ूब-रू जो एक का महबूब नहीं
ताबाँ अब्दुल हई