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ख़ूब-रू जो एक का महबूब नहीं | शाही शायरी
KHub-ru jo ek ka mahbub nahin

ग़ज़ल

ख़ूब-रू जो एक का महबूब नहीं

ताबाँ अब्दुल हई

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ख़ूब-रू जो एक का महबूब नहीं
ऐसे हरजाई से मिलना ख़ूब नहीं

चोली नीची मत पहन ऐ जामा-ज़ेब
इस में छब तख़्ती का कुछ उस्लूब नहीं

मैं तो तालिब दिल से हूँगा दीन का
दौलत-ए-दुनिया मुझे मतलूब नहीं

सब्र कब तक हिज्र में तेरे करूँ
मैं तिरा आशिक़ हूँ कुइ अय्यूब नहीं

यार की 'ताबाँ' ज़नख़दाँ को न चाह
देख कहता हूँ कुएँ में डूब नहीं