ख़ूब है शौक़ का ये पहलू भी
मैं भी बरबाद हो गया तू भी
हुस्न-ए-मग़मूम तमकनत में तिरी
फ़र्क़ आया न यक-सर-ए-मू भी
ये न सोचा था ज़ेर-ए-साया-ए-ज़ुल्फ़
कि बिछड़ जाएगी ये ख़ुश-बू भी
हुस्न कहता था छेड़ने वाले
छेड़ना ही तो बस नहीं छू भी
हाए वो उस का मौज-ख़ेज़ बदन
मैं तो प्यासा रहा लब-ए-जू भी
याद आते हैं मो'जिज़े अपने
और उस के बदन का जादू भी
यासमीं उस की ख़ास महरम-ए-राज़
याद आया करेगी अब तू भी
याद से उस की है मिरा परहेज़
ऐ सबा अब न आइयो तू भी
हैं यही 'जौन-एलिया' जो कभी
सख़्त मग़रूर भी थे बद-ख़ू भी
ग़ज़ल
ख़ूब है शौक़ का ये पहलू भी
जौन एलिया