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ख़ूब बूझा हूँ मैं उस यार कूँ कुइ क्या जाने | शाही शायरी
KHub bujha hun main us yar kun kui kya jaane

ग़ज़ल

ख़ूब बूझा हूँ मैं उस यार कूँ कुइ क्या जाने

सिराज औरंगाबादी

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ख़ूब बूझा हूँ मैं उस यार कूँ कुइ क्या जाने
इस तरह के बुत-ए-अय्यार कूँ कुइ क्या जाने

ले गईं हात सें दिल उस की झुकी हुई आँखें
हीला-ए-मर्दुम-ए-बीमार कूँ कुइ क्या जाने

मैं न बूझा था तिरी ज़ुल्फ़-ए-गिरह-दार के पेच
सच कि कैफ़िय्यत-ए-मक्कार कूँ कुइ क्या जाने

शरह-ए-बे-ताबी-ए-दिल नीं है क़लम की ताक़त
तपिश-ए-शौक़ के तूमार कूँ कुइ क्या जाने

शर्बत-ए-ख़ून-ए-जिगर का मज़ा आशिक़ पावे
लज़्ज़त-ए-इश्क़-ए-जिगर-ख़ार कूँ कुइ क्या जाने

मशरब-ए-इश्क़ में हैं शैख़-ओ-बरहमन यकसाँ
रिश्ता-ए-सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार कूँ कुइ क्या जाने

नमक-ए-ज़ख़्म हुआ मरहम-ए-जालीनोसी
ख़लिश-ए-सीना-ए-अफ़गार कूँ कुइ क्या जाने

तौक़-ओ-ज़ंजीर नहीं जिस पे किसे रहम आवे
दाम-ए-उल्फ़त के गिरफ़्तार कूँ कुइ क्या जाने

जब तलक तल्ख़ी-ए-शोराब-ए-ग़म चाखा नीं
तब तलक लज़्ज़त-ए-दीदार कूँ कुइ क्या जाने

क़द्र उस नाफ़ा-ए-तातार की मुझ सें पूछो
यार की ज़ुल्फ़ की महकार कूँ कुइ क्या जाने

मैं कहा ज़ख़्मी-ए-ग़म हूँ तो दिया उस ने जवाब
ऐ 'सिराज' ऐसे छुपे वार कूँ कुइ क्या जाने