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ख़ू-ए-ग़म दिल को है या'नी हिस-ए-ग़म कुछ भी नहीं | शाही शायरी
KHu-e-gham dil ko hai yani his-e-gham kuchh bhi nahin

ग़ज़ल

ख़ू-ए-ग़म दिल को है या'नी हिस-ए-ग़म कुछ भी नहीं

मानी जायसी

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ख़ू-ए-ग़म दिल को है या'नी हिस-ए-ग़म कुछ भी नहीं
क्या है अब कार-गह-ए-नाज़-ओ-सितम कुछ भी नहीं

रोज़-ए-फ़रियाद से मग़्लूब नहीं ताक़त-ए-शुक्र
जब्र-ए-तक़दीर-ओ-गिराँ बारी-ए-ग़म कुछ भी नहीं

ज़िंदगी मुज़्दा-ए-ग़म मौत नवेद-ए-ग़म-ए-नौ
कोई रूदाद ब-हर-शान-ए-करम कुछ भी नहीं

इक तरफ़ हश्र में तू एक तरफ़ बहर-ए-करम
दामन-ए-तर तो अब ऐ दीदा-ए-नम कुछ भी नहीं

दर्ख़ुर-ए-बेखु़दी-ए-दिल न अलम है न सुरूर
ज़हर-ए-ग़म कुछ भी नहीं साग़र-ए-जम कुछ भी नहीं

फ़र्क़-ए-ज़र्फ़-ए-दिल-ओ-पैमाना-ए-तक़दीर न पूछ
उस ने भरपूर दिया और उसे ग़म कुछ भी नहीं

क्या ख़बर क्या है ये हंगामा-ए-हस्ती 'मानी'
हम को इतना तो है मालूम कि हम कुछ भी नहीं