ख़ुश्क खेती है मगर उस को हरी कहते हैं
कम-निगाही को भी वो दीदा-वरी कहते हैं
फ़िक्र-ए-रौशन को वो शोरीदा-सरी कहते हैं
यानी सूरज को चराग़-ए-सहरी कहते हैं
जो तिरे दर से उठा फिर वो कहीं का न रहा
उस की क़िस्मत में रही दर-बदरी कहते हैं
कितनी बे-रहम है फ़ितरत उन्हें मालूम नहीं
जो उसे कारगह-ए-शीशागरी कहते हैं
हुस्न के बाब में 'अकबर' की सनद काफ़ी है
हम भी हर इक बुत-ए-कमसिन को परी कहते हैं
रूह-ए-सय्यद पे ख़ुदा जाने गुज़र जाएगी क्या
आम अलीगढ़ में हुई कम-नज़री कहते हैं
ग़ज़ल
ख़ुश्क खेती है मगर उस को हरी कहते हैं
आल-ए-अहमद सूरूर