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ख़ुशी की आरज़ू को पा के महरूम-ए-ख़ुशी मैं ने | शाही शायरी
KHushi ki aarzu ko pa ke mahrum-e-KHushi maine

ग़ज़ल

ख़ुशी की आरज़ू को पा के महरूम-ए-ख़ुशी मैं ने

वक़ार मानवी

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ख़ुशी की आरज़ू को पा के महरूम-ए-ख़ुशी मैं ने
ख़ुशी की आरज़ू दिल में कभी पलने न दी मैं ने

वतन की सर-ज़मीं जिस पर लुटा दी ज़िंदगी मैं ने
वहीं अपने लिए पाई मोहब्बत की कमी मैं ने

जो मेरी जान के दुश्मन थे उन पर जान दी मैं ने
सिखाई यूँ भी अपने दुश्मनों को दोस्ती मैं ने

सियासत से फ़सादों का बना मस्कन वतन मेरा
जहाँ सदियों दिया पैग़ाम-ए-सुल्ह-ओ-आश्ती मैं ने

गुल-अफ़शाँ जो ज़मीं थी वो ज़मीं अब आग उगलती है
अजब ता'बीर देखी हुर्रियत के ख़्वाब की मैं ने

सहर कैसी सहर का ज़िक्र भी इक जुर्म ठहरा है
अँधेरी रात का देखा है ये अंधेर भी मैं ने

वहाँ मुझ को मोहज़्ज़ब भी न माना जाए हैरत से
जहाँ तहज़ीब की बुनियाद रक्खी थी कभी मैं ने

ये तौफ़ीक़ अपनी अपनी अपना अपना ज़र्फ़ है प्यारे
मुसलसल तू ने की बेदाद पैहम दाद दी मैं ने

शिकस्ता-पाई से मैं अपनी पीछे रह गया बे-शक
मगर तेज़ी-ए-रफ़्तार-ए-जहाँ तो जान ली मैं ने

ये अब तुझ पर है तो क़दमों में रहने दे कि ठुकरा दे
तिरे क़दमों में रख दी अपने दिल की हर ख़ुशी मैं ने

यक़ीनन वज्ह-ए-बख़्शिश नाज़-ए-उम्र-ए-बंदगी होता
किया होता अगर शायान-ए-दर इक सज्दा भी मैं ने

यही कुछ कम नहीं कम आगही के इस ज़माने में
जहान-ए-शेर को बख़्शा 'वक़ार'-ए-आगही मैं ने